केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 पर उसके हालिया आदेश से देश को भारी नुकसान हुआ है। फैसले से देश में आक्रोश, बैचेनी का भाव पनपा है। सामाजिक समरसता को भी गहरी चोट पहुंची है। सरकार ने 20 मार्च के आदेश को वापस लेने की गुहार लगाई है।
अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट को दी लिखित दलील में दावा किया कि फैसले ने एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किया है। साथ ही कहा कि 20 मार्च का वह आदेश वापस लिया जाए, जिसमें एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच और आरोपी को गिरफ्तारी से संरक्षण दिया गया था। 20 मार्च को अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के दुरुपयोग के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम के तहत मिलने वाली शिकायत पर स्वत: एफआईआर और गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी। साथ ही अग्रिम जमानत के प्रावधान को जोड़ दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच होनी चाहिए। साथ ही सरकारी अधिकारियों की गिरफ्तार से पहले नियुक्त करने वाली अथॉरिटी से अनुमति लेनी होगी। 3 अप्रैल की सुनवाई में जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और यूयू ललित की पीठ ने कहा था कि हमने अधिनियम के किसी भी प्रावधान को कमतर नहीं किया है। जो लोग प्रदर्शन कर रहे हैं उन्होंने हमारे आदेश को पढ़ा नहीं है। पीठ ने सभी पक्षकारों को लिखित दलीलें पेश करने का निर्देश देते हुए सुनवाई टाल दी थी।
अदालत नहीं बना सकती कानून: केंद्र
सरकार ने कहा कि संविधान में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का अधिकार निहित है। अदालत कानून नहीं बना सकती। अदालत ने अपने आदेश से कानून में ही संशोधन कर दिया है, जबकि अदालत न्यायिक स्तर पर कानून में संशोधन भी नहीं कर सकती।
एससी-एसटी कानून के खिलाफ है आदेश: केंद्र
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि आदेश को लेकर देश में बड़े पैमाने पर भ्रम की स्थिति है। लिहाजा, इसमें सुधार की जरूरत है। एससी-एसटी वर्ग के लोग सताए हुए हैं। इस आदेश के बाद संबंधित मामले में पुलिस का रवैया टालमटोल वाला होगा। मुकदमे दर्ज नहीं होंगे। सरकार ने कहा है कि शीर्ष अदालत का फैसला एससी-एसटी अधिनियम के विपरीत है और तत्काल एफआईआर व अग्रिम जमानत न होने के कानून के उलट है।